भारत में महिला साक्षरता

प्रशांत पांडेय 


कहा जाता है कि शिक्षा की रौशनी के बिना किसी भी समाज का चौतरफा विकास नहीं हो सकता। एक बेहतर समाज का सपना भी साक्षरता की राह से साकार होता है। ये किसी भी देश की सामाजिक आर्थिक विकास का आइना भी है। पिछले कुछ वर्षों में भारत सरकार की ओर से राष्ट्रीय साक्षरता मिशन और सर्व शिक्षा अभियान जैसे कुछ कार्यक्रम चलाए गए हैं और इसके बेहतर नतीजे भी सामने आ रहे हैं। इससे देश में साक्षरता दर में इजाफा देखने को मिल रहा है। भारत ने दशक दर दशक साक्षरता की दिशा में काफी प्रगति की है। 1951 में साक्षरता दर करीब 18.33 प्रतिशत थी, जो 2011 में बढ़कर 74.04 प्रतिशत तक पहुंच गई। इनमें 82.14 प्रतिशत पुरुष और 65.46 प्रतिशत महिलाएं शामिल हैं। 2001 की तुलना में साक्षरता दर में 9.21 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। 2001 में करीब 65 प्रतिशत आबादी साक्षर थी। अब बात आती है महिला साक्षरता दर की। अगर हम इसकी बात करें, तो पुरुषों की तुलना में वो कम तो जरूर है, लेकिन इसमें भी सकारात्मक बढ़ोतरी दर्ज हुई है। 2001 में 53.67 प्रतिशत महिलाएं साक्षर थीं, जो 2011 में बढ़कर 65.46 प्रतिशत हो गया। यानी एक दशक में 11.79 प्रतिशत का इजाफा हुआ। 2001 में पुरुष-महिला साक्षरता में 21.59 प्रतिशत का अंतर था, जो 2011 में कम होकर 16.68 पर आ गया है। 2011 के सामाजिक, आर्थिक और जाति जनगणना के सामने आए ये आंकड़े शिक्षा की प्रगति को बयां करते हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति अब भी अच्छी नहीं है। देश के अलग-अलग हिस्सों में महिला साक्षरता दर में काफी बड़ा अंतर नजर आता है। शहरों में ग्रामीण इलाकों के मुकाबले साक्षरता दर कहीं ज्यादा है। हाल के जनगणना के मुताबिक महिला साक्षरता केरल में सबसे ज्यादा 92 फीसदी और राजस्थान में सबसे कम 52.7 फीसदी है। घनी आबादी वाले राज्यों की बात करें, तो उत्तर प्रदेश में 59.3 फीसदी और बिहार में 53.3 फीसदी है। इसका सीधा रिश्ता सेहत और शिशु मृत्यु दर से है। केरल में शिशु मृत्यु दर सबसे कम है, तो वहीं उत्तर प्रदेश और बिहार में सबसे ज्यादा है। अब सवाल ये उठता है कि आखिर महिलाओं में साक्षरता दर कम क्यों है। इसका प्रमुख कारण बेटियों की शिक्षा के प्रति मां-बाप का उदासीन रवैया है। ज्यादातर घरों में लड़कों को प्राथमिकता दी जाती है। अक्सर लोग ये मानते हैं कि लड़कियों को शादी के बाद दूसरे के घर जाना है, इस वजह से उनकी पढ़ाई पर खर्च को पैसों की बर्बादी समझा जाता है। तो वहीं महिलाओं की कम साक्षरता की जड़ में गरीबी भी बड़ा कारण है। भारत की एक तिहाई से ज्यादा आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती है। हालांकि सरकार प्राथमिक शिक्षा को मुफ्त करने की सारी कोशिशें कर रही है, लेकिन मां बाप ही बच्चियों को स्कूल भेजने को तैयार नहीं हैं। इसका रिश्ता स्कूल की दूरी से भी जुड़ा है। अधिकत्तर ग्रामीण हिस्सों में स्कूल पहुंचना काफी मुश्किल भरा काम है। माता-पिता लड़कियों को घर से ज्यादा दूर स्कूल भेजना नहीं चाहते। स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं की कमी भी लड़कियों को स्कूल से दूर करती है। तो वहीं महिला शिक्षकों की कमी भी बड़ी बाधा के रुप में सामने आती है। सरकार हमेशा इस कोशिश में है कि तमाम बाधाओं को दूर कर ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को शिक्षित और साक्षर किया जाए। सरकार ने 2000 में बच्चों के हाथों में किताब और कलम देने की महत्वाकांक्षी योजना के तौर पर सर्व शिक्षा अभियान की शुरुआत की। सर्व शिक्षा अभियान में भी लड़कियों की शिक्षा पर ज़ोर देने की बात कही गई। साथ ही कंप्यूटर एजुकेशन के ज़रिए बदलते जमाने के साथ बच्चों को तैयार करने का भी लक्ष्य रखा गया। सर्व शिक्षा अभियान से पहले 1993-94 में ज़िला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम की शुरुआत हुई थी, जिसमें देश भर के 18 राज्यों के 272 ज़िलों में हर बच्चे को शिक्षा देने की योजना थी। सर्व शिक्षा अभियान के बाद ये योजना ढीली पड़ने लगी, तो इसे भी सर्व शिक्षा अभियान में ही मिला दिया गया। प्राथमिक शिक्षा में लड़कियों की ज्यादा भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सर्व शिक्षा अभियान में कई महत्वपूर्ण विंदुओं का ध्यान रखा गया है। इसमें लड़कियों के आसानी से सुरक्षित स्कूल तक पहुंचने के लिए आस-पड़ोस में स्कूल खोलना, महिला शिक्षिकाओं समेत अतिरिक्त शिक्षकों की नियुक्ति, नि:शुल्क किताबें और ड्रेस देना, अलग शौचालय की व्यवस्था आदि शामिल हैं। तो वहीं, लड़कियों की भागीदारी बढ़ाने के मकसद से शिक्षकों को संवेदनशील बनाने के लिए कार्यक्रम, पाठ्य-पुस्तकों समेत लिंग संवेदनशील शिक्षण सामग्री पर जोर दिया गया है। इसके अलावा उन इलाकों में जहां महिला साक्षरता राष्ट्रीय स्तर से कम है, वहां लड़कियों के लिए कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय नाम से आवासीय उच्च प्राथमिक स्कूल खोला गया है। 3,609 कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय में 75 फीसदी सीटें अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों की लड़कियों के लिए हैं। इनमें से 3,599 स्कूलों में पढ़ाई शुरू हो चुकी है, जिसमें 3,64,855 छात्राओं का दाखिला भी हुआ है। सरकार माध्यमिक स्कूलों में लड़कियों की पढ़ाई जारी रखने के प्रति भी काफी गंभीर है। इसके लिए राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के तहत 1000 होस्टल बनाने और उसे चलाने की योजना है। ये होस्टल शैक्षणिक रुप से पिछड़े इलाकों में माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक की 14 से 18 वर्ष की छात्राओं के लिए बनाए जाएंगे। सरकार के प्रयासों की तस्दीक यूनेस्को की 2015/2016 की ग्लोबल मॉनिटरिंग रिपोर्ट से भी हो रही है। जो भारत की शिक्षा व्यवस्था के लिए अच्छे नतीजे लेकर आई है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत के प्राथमिक स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हुआ है। सबसे अच्छी बात ये है कि स्कूलों में छात्र और छात्राओं की संख्या में अंतर कम होता जा रहा है यानी जेंटर पैरिटी में सुधार दर्ज किया गया है। मतलब ये हुआ कि स्कूल जानेवाली लड़कियों की तादाद में बढ़ोतरी हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक प्राथमिक विद्यालयों में भारत जेंडर पैरिटी हासिल कर चुका है और माध्यमिक स्तर पर भी काफी करीब है। रिपोर्ट में ये बात सामने आई है कि भारत ने यूनिवर्सल प्राइमरी एजुकेशन हासिल कर लिया है। जाहिर है ये सभी के लिए शिक्षा का लक्ष्य पाने की ओर भारत के बढ़ते कदमों की निशानी है। भारत ने पिछले 15 साल में स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों की संख्या में 90 फीसदी की कमी करने में कामयाबी हासिल की है। लिंग समानता देखें, तो प्राथमिक स्तर पर 2012 में इसे 1.02 प्रतिशत बताया गया, जो 1999 में 0.84 फीसदी था। माध्यमिक स्तर पर ये हालांकि 0.94 फीसदी ही है, लेकिन 1999 के 0.70 फीसदी से काफी बेहतर है। विद्यालयों में सकल नामांकन अनुपात यानी ग्रॉस इनरोलमेंट रेशियो में भी सुधार दर्ज किया गया है। 1999 में प्री प्राइमरी में सकल नामांकन अनुपात 19 प्रतिशत था, जो 2012 में बढ़कर 58 प्रतिशत पर पहुंच गया। जबकि 2012 में प्राइमरी में नामांकन अनुपात 99 फीसदी हो गया, जो 1999 में 86 फीसदी था। रिपोर्ट के मुताबिक भारत समेत 69 फीसदी देश 2015 में ही प्राथमिक स्तर पर लिंग समानता यानी जेंडर पैरिटी दर हासिल कर लेंगे। जबकि माध्यमिक स्तर पर 48 प्रतिशत देश ये लक्ष्य हासिल कर सकेंगे। यूनेस्को के अलावा असर रिपोर्ट में भी बताया गया है कि दूसरी और चौथी क्लास में लड़के और लड़कियों की संख्या लगभग एक जैसी है। छात्राओं का सबसे ज्यादा अनुपात आंध्र प्रदेश में है। कई राज्यों में लड़कियों की तादाद लड़कों से ज्यादा है। भले ही लिंग समानता में अंतर कम हो गया हो, लेकिन लड़कियों की शिक्षा की ओर और ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। कम महिला साक्षरता दर हमारे समाज को प्रभावित कर रही है। इसका सीधा असर हर क्षेत्र के विकास पर पड़ता है। ये विकास के सभी पहलुओं को प्रभावित करती हैं। बढ़ती आबादी पर लगाम के लिए परिवार नियोजन कार्यक्रमों को प्रोत्साहित और प्रचारित प्रसारित किया जा रहा है, अगर महिलाएं शिक्षित नहीं है, तो इन कार्यक्रमों पर इसका सीधा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अध्ययन बताते हैं कि एक साक्षर महिला की तुलना में अशिक्षित महिला को अनेक परेशानियों से गुजरना पड़ता है। असाक्षर महिला की प्रजनन और मृत्यु दर दोनों ज्यादा होती हैं। उन्हें कुपोषण और सेहत से जुड़ी समस्याओं से जूझना पड़ता है। ये भी माना जाता है कि शिशु मृत्यु दर का सीधा रिश्ता मां के साक्षरता के स्तर से है। शिक्षा की कमी का सीधा मतलब जागरुकता की कमी भी है। अशिक्षित महिलाएं अपने अधिकारों को लेकर जागरुक नहीं होती हैं। उन्हें सरकार की ओर से चलाए जा रहे कल्याण कार्यक्रमों की जानकारी नहीं होती है। वो जीवन भर संघर्ष करती हैं। जीवन, परिवार और पति की कठोरता बर्दास्त करती हैं। भले ही भारत में लड़कियों की साक्षरता दर में इजाफा दर्ज किया गया हो। भारत की इस उपलब्धि के पीछे बुनियादी शिक्षा में सुधार और ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूलों से जोड़ना है। लेकिन अब भी इसमें सुधार की काफी गुंजाइश है। यूनेस्को की रिपोर्ट की कुछ बातें चिंताजनक भी हैं। भारत असाक्षरता दर को वैश्विक स्तर यानी 50 फीसदी तक लाने में अब भी नाकाम रहा है। देश में असाक्षर वयस्कों में 68 फीसदी महिलाएं शामिल हैं। भारत की स्कूली शिक्षा की हालत में बेहतरी की बात बतायी गई। ऐसे में ये सवाल उठता है कि हम वैश्विक मानकों पर हर तरह से कब खरा उतरेंगे और कब सौ प्रतिशत महिला साक्षरता दर हासिल कर पाएंगे। (लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

Comments