कावेरी जल विवाद

एक राष्ट्र-एक संसाधन, संग्राम क्यों 


प्रशांत पांडेय 


बैठक दर बैठक आदेश दर आदेश, लेकिन मसला वहीं का वहीं, ये हाल है कावेरी जल विवाद का। हाल में कावेरी जल विवाद पर सर्वदलीय बैठक के बाद कर्नाटक सरकार ने पानी छोड़ने में असमर्थता जाहिर की। बैठक से पहले ही मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने जता दिया था कि कर्नाटक पानी छोड़ने की स्थिति नहीं है। उन्होंने कहा था कि पहली प्राथमिकता राज्य के लोगों को पीने का पानी मुहैया कराना है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट कई बार कर्नाटक को तमिलनाडु के लिए पानी छोड़ने का आदेश दे चुका है। लेकिन कर्नाटक पानी की कमी का हवाला देता रहा। कुछ दिन पहले तो कर्नाटक विधान सभा ने सर्वसम्मति से संकल्प पारित कर तमिलनाडु को पानी देने से इनकार कर दिया। संकल्प के प्रस्ताव में कर्नाटक के लोगों की जरूरतों का हवाला दिया गया। प्रस्ताव में 2016-17 के दौरान पानी की भारी कमी और कावेरी के पानी का इस्तेमाल सिर्फ कावेरी बेसिन और बेंगलुरु के लोगों के पीने के लिए ही करने की बात कही गई। कर्नाटक विधान सभा ने माना कि कावेरी बेसिन के सभी चार जलाशयों का पानी सबसे निचले स्तर पर है और ये 27.6 टीएमसी तक गिर चुका है। हालांकि तमिलनाडु ने कर्नाटक के इस कदम को सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करार दिया। कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कावेरी विवाद मामले में केंद्र सरकार से दखल की मांग की। विशेष सत्र से एक दिन पहले वो दिल्ली पहुंचे और केंद्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती, वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री एम एम कृष्णा से मुलाकात की। कर्नाटक में बीजेपी इस मसले पर कांग्रेस सरकार के साथ खड़ी नजर आई। पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने सरकार को पूरा समर्थन देने की बात कही। उधर, तमिलनाडु में भी विपक्ष ने विधान सभा का सत्र बुलाने की मांग की। डीएमके प्रमुख करुणानिधि ने बयान जारी कर कहा कि सत्र को आगे की रणनीति तय करने के लिए फायदेमंद बताया। हाल के विवाद की शुरूआत तमिलनाडु के सुप्रीम कोर्ट जाने के साथ हुई। 2013 में कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण ने कर्नाटक को 419 टीएमसी पानी छोड़ने का आदेश दिया था। लेकिन इस साल तमिलनाडु ने कर्नाटक पर न्यायाधिकरण के फैसले की अवहेलना का आरोप लगाया। तमिलनाडु का आरोप है कि कर्नाटक ने इस साल जून और जुलाई में पानी नहीं दिया। अगस्त में तमिलनाडु विधान सभा में मुख्यमंत्री जे जयललिता ने नियम 110 के तहत कहा कि कावेरी जल विवाद पर गठित न्यायाधिकरण के आदेश के मुताबिक तमिलनाडु को पर्याप्त पानी मिलना चाहिए। लेकिन कर्नाटक सरकार की ओर से वाजिब कदम नहीं उठाया जा रहा है। मुख्यमंत्री जे जयललिता ने कर्नाटक और केन्द्र सरकार पर इस मामले को लेकर लिखे गए खत का जवाब नहीं देने का आरोप लगाया। साथ ही सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कही। इसके बाद 22 अगस्त को तमिलनाडु ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी। याचिका के जरिए कर्नाटक सरकार से तत्काल 25 टीएमसी पानी की मांग की गई। तमिलनाडु सरकार ने याचिका में कावेरी के बहाव क्षेत्र में सूखे और 15 लाख हेक्टयर सांबा की फसल बर्बाद होने की हवाला दिया। तमिलनाडु के मुताबिक पानी नहीं मिलने से खेती किसानी से जुड़े 40 लाख लोगों के रोजगार पर असर पड़ेगा। 5 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक सरकार को अगले 10 दिनों तक तमिलनाडु के लिए 15 हजार क्यूसेक पानी छोड़ने का आदेश दिया। अदालत ने तमिलनाडु को निगरानी समिति के पास जाने को भी कहा। लेकिन कर्नाटक सरकार ने कहा कि राज्य पहले ही पानी की कमी से जूझ रहा है। 5 सितबंर के आदेश के बाद कर्नाटक में विरोध प्रदर्शन का तेज हो गया। ये प्रदर्शन धीरे धीरे हिंसक होता चला गया। हालांकि कर्नाटक सरकार ने अदालत के आदेश पर समहति जतायी, लेकिन सुधार याचिका दायर करने की भी बात कही। कर्नाटक में जारी प्रदर्शनों के बीच एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। कर्नाटक की सुधार याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने पुराने आदेश में संशोधन किया और तमिलनाडु को पानी देने की मात्रा घटाने का आदेश दिया। बाद में शीर्ष अदालत ने 21 सितंबर से 27 सितंबर तक 6000 क्यूसेक पानी छोड़ने का आदेश दिया। इस फैसले को भी कर्नाटक सरकार ने टाल दिया। उच्चतम न्यायालय ने चार हफ्ते के भीतर कावेरी जल प्रबंधन बोर्ड बनाने की भी बात कही। 27 सितंबर की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट से एक बार फिर कर्नाटक को राहत नहीं मिली। अदालत ने तीन दिन तक रोजाना 6000 क्यूसेक पानी तमिलनाडु को देने का आदेश दे दिया। साथ ही ये भी कहा कि भले ही कर्नाटक विधान सभा से प्रस्ताव पारित किया गया हो, लेकिन राज्य सरकार को आदेश का पालन करना होगा। कोर्ट ने कहा कि ये दो राज्यों के बीच का मामला है और केंद्र सरकार की ओर से सुलझाया जाना चाहिए। इसके लिए केंद्र से दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक कराने की भी बात कही गई। कावेरी जल विवाद की जड़ में देखें, तो ये सौ साल से ज्यादा पुरानी समस्या है। 19वीं सदी के आखिर में शुरू हुआ कावेरी जल विवाद का आज तक जारी है। ब्रिटिश शासन काल में पहली बार 1892 में मद्रास प्रेसिडेंसी और मैसूर रियायत के बीच समझौता हुआ। उसके बाद 1924 में दूसरा समझौता हुआ। फिर भी ये मसला अनसुलझा ही रहा। आज तमिलनाडु 1924 के समझौते को लागू करने की मांग कर रहा है, कर्नाटक का ये तर्क है कि वो नदी के बहाव में पहले पड़ता है, इसलिए पानी पर उसका पूरा अधिकार है। तकरीबन हर साल पानी को लेकर दोनों राज्यों में तनातनी और प्रदर्शनों का दौर देखा जाता रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिंहाराव के समय में भी कावेरी के पानी को लेकर कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच हिंसा हुई थी। लेकिन उस वक्त केंद्र सरकार ने समाधान के लिए फॉर्मूला तैयार किया, जिससे दोनों राज्यों की लड़ाई काफी हद तक शांत हो गई। 2014 में भी कर्नाटक और तमिलनाडु आमने-समाने आ गए थे। दरअसल कर्नाटक सरकार ने 1960 के दशक से अधर में लटकी मेकेदातु घाटी में एक बांध बनाने की परियोजना फिर से शुरू करने की कोशिश की। राज्य सरकार ने बांध निर्माण के तकनीकी औचित्य को परखने के लिए ग्लोबल एक्सप्रेशन ऑफ इंटरेस्ट की शुरुआत की। इस योजना का मकसद बेंगलुरु और पुराने मैसूर के कुछ हिस्सों को पानी मुहैया कराना है। परियोजना पर काम शुरू करने की खबर बाहर आते ही, तमिलनाडु में विरोध का सिलसिला शुरू हो गया। तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री ओ पनीरसेल्वम ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखी और इस परियोजना पर आगे बढ़ने से कर्नाटक को रोकने की मांग की। दक्षिण की गंगा कहलानेवाली कावेरी नदी वेस्टर्न घाट से निकलकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है। लेकिन सागर में मिलने से पहले कावेरी कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी से होकर गुजरती है। इसके पानी के बंटवारे को लेकर चारों राज्यों में लंबे समय से विवाद चला आ रहा है। केंद्र सरकार ने 1972 में एक समिति गठित की। समिति की रिपोर्ट और विशेषज्ञों की सिफारिशों के बाद अगस्त 1976 में कावेरी जल विवाद से जुड़े सभी पक्षों के बीच एक समझौता हुआ। इसकी घोषणा संसद में भी की गई, लेकिन समझौते का पालन नहीं हो पाया और विवाद चलता रहा। जुलाई 1986 में तमिलनाडु ने अंतर्राज्यीय जल विवाद अधिनियम 1956 के तहत केंद्र सरकार से एक न्यायाधिकरण बनाने की अपील की। हालांकि केंद्र सरकार बातचीत के जरिए ही विवाद का हल निकालने के हक में रही। इस बीच तमिलनाडु के किसानों की याचिका पर सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को न्यायाधिकरण गठित करने का निर्देश दिया। 2 जून 1990 को कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण का गठन किया। 1991 में न्यायाधिकरण ने एक अंतरिम आदेश दिया। इसमें कर्नाटक से कावेरी के पानी का एक तय हिस्सा तमिलनाडु को देने को कहा गया। हर महीने कितना पानी छोड़ा जाएगा, ये भी तय हुआ, लेकिन कोई अंतिम फैसला नहीं हो सका। फैसला लागू नहीं होने पर तमिलनाडु ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। कोर्ट की दखल के बाद न्यायाधिकरण ने 2007 में कावेरी नदी जल के बंटवारे पर आदेश दिया। इसके आदेश को 2013 में सरकार ने अधिसूचित किया। इसमें कावेरी के 740 टीएमसी पानी में से तमिलनाडु को 419, कर्नाटक को 270, केरल को 30 और पुदुचेरी को 7 टीएमसी देने की बात कही गई। कावेरी प्रबंधन बोर्ड और कावेरी जल नियमन समिति बनाना भी इसमें शामिल था। लेकिन दोनों राज्यों के अड़ियल रुख के चलते अब तक कावेरी जल समझौता लागू नहीं हो पाया है। अब एक बार फिर कावेरी जल विवाद को सुलझाने की बात कही जा रही है। ताजा हालात के बीच कावेरी निगरानी समिति की भी दो अहम बैठक हो चुकी है। समिति ने कावेरी जल विवाद को लेकर बैठक में बड़ा फैसला लिया। कावेरी निगरानी समिति ने केंद्रीय जल आयोग की अगुवाई में पानी की कमी और जरुरत का आंकड़ा इकट्ठा करने का नया तंत्र विकसित कराने का फैसला किया। समिति इसे दीर्घकालीन समाधान बता रही है। दरअसल अब तक पानी के इस्तेमाल और खपत का अपना अपना आंकड़ा राज्य सरकारें इकट्ठा करती रही हैं। इस वजह से इस पर आमराय नहीं बन पाती थी और ना ही विवाद सुलझाता था। समिति के अध्यक्ष और केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के सचिव शशि शेखर की अध्यक्षता में बैठक हुई। जिसमें तमिलनाडु, कर्नाटक, पांडिचेरी और केरल के मुख्य सचिव के अलावा केंद्रीय जल आयोग के अध्यक्ष भी शामिल हुए। समिति के मुताबिक कावेरी जल विवाद के स्थायी समाधान का वक्त आ गया है। इसके लिए अब राज्यों से जल उपयोग और जरुरतों का डाटा लेने की बजाए केंद्रीय डाटा बेस बनाया जाएगा। उन्होंने बताया कि इसके लिए अक्टूबर के बाद हर महीने बैठक होगी और अगले एक डेढ़ साल में मेकेनिज्म बना लिया जाएगा। देखना ये होगा कि आखिर सौ साल से ज्यादा पुराने इस विवाद का हल कितना और कब तक निकल पाता है। कई समझौतों के बाद भी मामला ज्यों का त्यों ही नजर आ रहा है। जब-जब विवाद की शुरुआत होती है, तब तब सबसे ज्यादा परेशानी आम जनता ही उठाती है। नुकसान भी सबसे ज्यादा उसी का होता है। चारों राज्यों की आम जनता को भी समस्या के जल्द समाधान का इंतजार होगा। ताकि आए दिन होनेवाले विरोध-प्रदर्शनों और नुकसान से निजात मिल सके। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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