मीडिया की साख पर सवाल

प्रशान्त पाण्डेय


यूं तो मीडिया की साख को लेकर हमेशा सवाल उठते रहे हैं। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की साख पर सबसे ज्यादा सवाल उठे हैं। एक वक्त था जब लोग संचार के किसी भी माध्यम यानी अखबार, रेडियो या फिर टीवी न्यूज चैनलों से मिली खबरों को सही मानते थे और वो अमिट छाप छोड़ जाते थे। आकाशवाणी के बाद 1959 में दूरदर्शन का प्रायोगिक प्रसारण शुरू हुआ। इसके बाद 1965 से रेग्युलर प्रसारण शुरू हो गया और 5 मिनट के न्यूज बुलेटिन की शुरुआत हुई। हालांकि साठ के दशक में कोई निजी चैनल नहीं था। अखबार के अलावा आकाशवाणी और दूरदर्शन ही खबरों का जरिया थे। दूर-दराज के इलाकों में तो महज रेडियो की ही पहुंच थी।
अगर बात चार दशक पहले यानी 70 के दशक की करें, तो वो जमाना आपातकाल यानी इंमरजेंसी का था। जब तमाम अखबारों और पत्रिकाओं ने अपने तरीके से विरोध जताया। सारिका के तत्कालीन संपादक कमलेश्वर ने तो पूरी पत्रिका में ही सरकार से जुड़े शब्दों को काले रंग से रंग दिया। उस दौर में आकाशवाणी और दूरदर्शन पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में थे। इन दोनों माध्यमों पर लोग आरोप भी लगाया करते थे कि ये तो सरकार के मुताबिक ही खबरों का प्रसारण करता है।
आपातकाल के दौर में खबरों का सेंसरशीप बड़े पैमाने पर फला-फूला, लेकिन जब वो दौर खत्म हुआ, तब पत्रकारिता की नई धार देखने को मिली। अखबार और पत्रिकाओं में स्वंत्रत और निष्पक्ष पत्रकारिता शुरू हुई। हालांकि उस वक्त भी कई अखबार और पत्रिकाओं पर पार्टी विशेष का प्रभाव नजर आता था। जहां कुछ सरकार विरोधी थे, कुछ सरकार समर्थक।
90 के दशक में निजी चैनलों के आने का सिलसिला शुरू हुआ। एक के बाद एक कई चैनल आए। हालांकि वो खबरिया चैनल नहीं थे, लेकिन एक या दो बुलेटिनों के साथ वो खबरों की दुनिया में किस्मत आजमाने लगे। बाकी दूसरे कार्यक्रमों से निजी चैनलों ने रफ्तार पकड़ी। 90 के दशक के आखिरी साल में निजी खबरिया चैनलों की शुरुआत हो गई। स्टार टीवी के लिए एनडीटीवी खबरें देने लगा। तो वहीं, आईएमपीएल जैसे प्रोड्क्शन हाउसों ने भी खबरों की दुनिया में एक अलग मुकाम हासिल किया। जी टीवी ने भी अपना खबरिया चैनल शुरू किया।
दिसंबर 2000 में आज तक के आने के साथ निजी खबरिया चैनलों की दुनिया में नई क्रांति का आगाज हुआ। चौबीस घंटे के न्यूज चैनल के रुप में आज तक ने बाजार पर मजबूत पकड़ बनाई। तो 2003 में एनडीटीवी ने स्टार से करार खत्म होने के बाद चैनल लाने की कवायद शुरू कर दी। वहीं 2003 में ही स्टार ने आनंद बाजार पत्रिका के साथ स्टार न्यूज लॉन्च किया। ये दोनों चैनल बाजार में उतरे और संचार क्रांति को नई मुकाम की ओर लेकर चले। 2003 में ही सहारा इंडिया परिवार ने 24 घंटे का न्यूज चैनल सहारा समय शुरू किया। 2004 में वरिष्ठ पत्रकार रजत शर्मा का चैनल इंडिया टीवी बाजार में उतरा। इसके कुछ महीने बाद ही 2005 में दैनिक जागरण प्रकाशन अपना न्यूज चैनल ‘चैनल 7’ लेकर आया। इन चैनलों के अलावा 2000 के दशक में और कई निजी चैनल खबरों की दुनिया में किस्मत आजमाने उतर पड़े। कुल मिलाकर देखें, तो इस दशक के अंत तक आते – आते खबरिया चैनलों की तादाद दर्जन भर से ज्यादा हो गई। हालांकि कुछ चले और कुछ बंद भी हो गए।
ज्यों-ज्यों चैनलों की तादाद बढ़ती गई, त्यों-त्यों प्रतिस्पर्धा भी तेज होने लगी। चैनलों की बढ़ती संख्या और उनके बीच मुकाबले ने खबरों पर भी असर डाला। नंबर वन बनने की दौड़ में खबरों का स्तर भी गिरने लगा। पहले आज तक और स्टार न्यूज के बीच प्रतिस्पर्धा थी, लेकिन बाद के दौर में चैनलों के आने का असर दिखने लगा। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर बाजार हावी होने लगा। टीआरपी के लिए कुछ भी दिखाने की होड़ मच गई।
शुरुआती दौर में आज तक और स्टार न्यूज खबरों पर टिके रहे। लेकिन इंडिया टीवी ने अपने आगाज के साथ ही खबरों के फॉर्मेट को बदला और चैनल पर लीक से हटकर खबरें चलने लगीं।
कई चैनल जहां एक ओर सांप, बिच्छु, भूत प्रेत, जादू टोना की खबरों को तरजीह देने लगे, तो इसके साथ ही धर्म से जुड़े कार्यक्रम भी लोकप्रियता की सीढ़ी चढने लगे। दाती मदन महाराज और आचार्य इंदू प्रकाश के कार्यक्रम तो बेहद लोकप्रिय हुए। 2000 के दशक में एक और बड़ी चीज सामने आई, जब धर्म ने चैनलों पर जगह बनाई। किसी एक संस्था ने श्रीलंका में मौजूद कुछ जगहों को भगवान राम से जुड़ा बताया। उसके कुछ अवशेष और कुछ वीडियो टीवी चैनलों को मुहैया कराए। चैनलों ने इसका भी बखूबी इस्तेमाल किया और मौके-बे-मौके टीआरपी के लिए राम से जुड़े कार्यक्रम चैनलों पर जमकर चले। उस दौर में एक चैनल ने तो रात में वयस्कों से जुड़े विषय पर आधारित कार्यक्रम शुरू कर दिया। इसको लेकर चैनल पर ऊंगलियां भी उठीं। लेकिन वो कार्यक्रम काफी समय तक चला।
2004 से जो टीआरपी की दौड़ हुई, तो इसके लिए चैनलों ने जो नहीं किया वो कम था। चैनल टीआरपी बटोरने के लिए किसी भी तरह की खबरों को तरजीह देने लगे। बड़े ओहदे पर बैठे लोगों ने नीचे डंडे हांकने शुरू कर दिए। रिपोर्टरों पर मसालेदार खबरों के लिए दबाव बढ़ने लगा। जिसका नतीजा दिखा 2004 में मिस जम्मू रही अनारा गुप्ता की सीडी के रुप में।
एक बड़े चैनल ने खबर ब्रेक किया, जिसमें अनारा गुप्ता की तथाकथित अंतरंग दृश्यों को जमकर दिखाया गया। जिस वक्त सीडी सामने आई और उस चैनल ने चलाना शुरू किया। उस वक्त एक खास कार्यक्रम प्रस्तावित था। जो आम लोगों के सरोकारों से जुड़ी खबर थी। लेकिन आनन-फानन में उस कार्यक्रम को स्थगित कर... अनारा गुप्ता की तथाकथित सीडी ऑन एयर हुआ। चैनल को टीआरपी तो भरपूर मिली, लेकिन इस खबर की आलोचना भी कम नहीं हुई। लोगों ने यहां तक कहा कि ये चैनल अब जो ना करे, सो कम है। कई बुजुर्गों ने खबर देखने से ही तौबा कर ली।
उधर, अनारा गुप्ता को कानूनी पचडों में उलझना पड़ा। जम्मू शहर से अनारा गुप्ता को उसके परिवारवालों के साथ पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। अनारा गुप्ता पर केस भी दर्ज हो गया। उसे दस दिन पुलिस हिरासत में गुजारना पड़ा। अनारा गुप्ता को अपने ऊपर लगे दाग छुड़ाने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। हैदराबाद की फॉरेंसिक लैब ने जांच के बाद कहा कि वीडियो में दिख रही महिला अनारा गुप्ता नहीं है। पुलिस केस बंद करने की कोशिश में जुट गई। हालांकि बाद में लैब की रिपोर्ट पर सवाल भी उठे। इंसाफ के लिए अनारा गुप्ता को राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का दरवाजा खटखटना पड़ा। मई 2005 में अनारा गुप्ता ने आयोग में दस्तक दी। दिसबंर 2005 में जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने अनारा गुप्ता पर चल रहे मुकदमें को बंद कर दिया। हालांकि 2006 में फिर से अनारा के खिलाफ मुकदमा शुरू हो गया।
2004 से शुरू ऐसी खबरों का दौर काफी बाद तक चला। कई MMS कांड ने तो मीडिया में काफी सुर्खियां बटोरी। लेकिन आम आदमी के सरोकार से जुड़ी खबरें टीवी के पर्दे से गायब होने लगीं। हालांकि एक दो चैनल उस दौर में भी टीआरपी की परवाह किए बिना अहम, गंभीर और आम लोगों से जुड़ी खबरों पर बने रहे। आम लोगों में अपनी साख और पहचान को कायम रखा। सारे झंझावात झेलकर आज भी वो बाजार में अलग पहचान के साथ मौजूद हैं।
2005 में हद तो तब हो गई, जब मध्यप्रदेश के बैतूल जिले से एक खबर आई। सेहरा गांव के रहनेवाले कुंजीलाल उर्फ पूंजीलाल ने अपनी मौत की भविष्यवाणी कर दी। 20 अक्टूबर 2005 को चौबीस घंटे उनकी मौत की खबर सुर्खियों में रही। कई चैनलों ने सेहरा गांव में ओबी वैन लगा दिया और कुंजीलाल की मौत लाइव दिखाने के लिए सेहरा से सीधा प्रसारण शुरू कर दिया। मौत का वो वक्त भी गुजर गया, जो कुंजीलाल ने बताया था। लेकिन कुंजीलाल की मौत नहीं हुई। कुंजीलाल की मौत के तमाशे ने खूब टीआरपी बटोरी और चैनलों को कमाई भी हुई। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की खबरों से लोगों का भरोसा भी उसी रफ्तार से कम हुआ। कुंजीलाल की जग हंसाई तो किसी से छुपी नहीं है। एक जमाना था, जब नागपुर, भोपाल, इंदौर जैसे महानगरों के अलावा मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के कई जिलों के लोग कुंजीलाल से अपनी समस्याओं का समाधान जानने आते थे। लेकिन मौत के उस तमाशे के बाद 90 साल के कुंजीलाल को कोई नहीं पूछता।
जुलाई 2006 में हरियाणा के प्रिंस के बोरवेल में गिरने की खबर को एक चैनल ने लाइव दिखाना शुरू किया। प्रिंस को बोरवेल से निकाले जाने तक लाइव प्रसारण किया। इस खबर की शुरुआत एक चैनल से हुई, लेकिन देखते-देखते कई चैनल पर लाइव शुरू हो गया। ओबी वैन लगा दिए गए और लगातार लाइव चलता रहा। चैनल पर खबर देखने के बाद मदद के लिए कई एजेंसियां आगे आईं। दरअसल, कुरुक्षेत्र जिले के हलदहरी गांव में 5 साल का प्रिंस खुले बोरवेल में गिर गया था। 60 फीट गहरे और ढाई फीट चौड़े बोरवेल से प्रिंस को निकालना कम बड़ी चुनौती नहीं थी। सेना और स्थानीय प्रशासन की मदद से 48 घंटे से ज्यादा की मशक्कत के बाद प्रिंस को सकुशल बोरवेल से निकाला गया। चैनलों ने बेशक इस खबर को भी मसालेदार और टीआरपी बटोरू खबर के रुप में ही जनता के सामने पेश किया गया। लेकिन चूंकि ये एक बच्चे की जिंदगी और मौत से जुड़ी खबर थी, तो लोगों की भावनाएं जुड़ती चली गई। आम लोगों ने मीडिया की तारीफ की। लोग ये कहते भी सुने गए कि आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने बेहतर काम किया है।
लेकिन सितंबर 2006 में ही एक बड़े चैनल की हास्यास्पद खबर ने एक बार फिर सवाल उठा दिया। जब बिना ड्राइवर की कार सड़क पर उतरी और चैनल ने काफी मसालेदार तरीके से उसे पेश किया। दरअसल, इस खबर को चलाने से पहले चैनल के कुछ खास लोग ही जानते थे कि आखिर इसमें राज क्या है। गुपचुप तरीके से कई दिन तक तैयारी चली। खूब प्रोमो किया गया, जोरदार प्रचार हुआ। चैनल के आला अधिकारियों और उनके कुछ खास सहकर्मियों ने ये एहतियात बरती की बिना ड्राइवर की कार का राज लीक ना हो। आखिरकार लोगों का इंतजार खत्म हुआ और प्राइम टाइम में बिना ड्राइवर की कार सड़क पर उतरी। उसे बेहद करीने से शूट किया गया था। टीवी के पर्दे पर कार चलती रही और ड्राईवर का दूर-दूर तक नामों निशान नहीं था। इसके बाद तो जमकर बवाल कटा। लोगों ने तरह – तरह के सवाल उठाए। आम दर्शक भी इस कार को मजाक ही समझते रहे। खैर, चैनल को टीआरपी चाहिए थी और वो उसे हासिल हो गई। लेकिन साख पर सवाल कायम रहा।
उस दौर का एक वाकया याद आता है, तो सोचता हूं कि अगर वो दौर जारी रहता, तो राजनीतिक रिपोर्टरों और गंभीर पत्रकारिता करनेवालों का क्या होता। उस दौर में एक नामी गिरामी चैनल के रनडाउन पर बैठता था, शाम होते ही जो मसालेदार खबरों का दौर शुरू होता था, वो रात बारह बजे के बाद ही थमता था। ऐसे में कई रिपोर्टर आते थे और कहते थे कि प्रशांत अरे हमारी भी खबरें देख लेना। कुछ ना हो तो रात 1 बजे के बुलेटिन में ही लगा लेना। उन रिपोर्टरों का दर्द मैं बखूबी महसूस कर सकता था। जो दिन भर की भागदौड़ के बाद कोई खबर लेकर आते थे। हर दिन कई बार ऐसा आग्रह सुनने को मिल जाता था।
2007 में एक चैनल माया सभ्यता की भविष्यवाणी लेकर सामने आया। उस सभ्यता के अस्तित्व के बारे में मेरा ज्ञान थोड़ा कम है, इसलिए टिप्पणी नहीं करूंगा, लेकिन उस सभ्यता की भविष्यवाणियों के हवाले से कहा गया कि 12-12-12 को प्रलय आएगा। कार्यक्रम निर्माण से जुड़े तमाम लोगों ने खूब रिसर्च किया। आधे घंटे के कार्यक्रम में यहां तक बता दिया गया कि पूरी दुनिया तबाह हो जाएगी। धरती जलमग्न हो जाएगी। सब कुछ खाक हो जाएगा। कुछ नहीं बचेगा।
इस कार्यक्रम ने टीआरपी तो खूब बटोरी, लेकिन मीडिया की साख पर प्रश्नचिन्ह भी लगा। इस कार्यक्रम से जुड़ी एक घटना मुझे आज भी याद है। मैं एक दुकान में शॉपिंग कर रहा था। तभी दुकानदार ने पास बैठे अपने दोस्त से कहा कि अरे यार ये चैनल वाले भी क्या- क्या चलाते रहते हैं। दुनिया में प्रलय आ जाएगा, तो ये अपने बचाव का उपाय खुद क्यों नहीं करते, आम जनता का दिमाग खराब करते रहते हैं। ये बातचीत सुनकर मेरा ध्यान पीछे लगे टीवी स्क्रीन पर गया, तो देखा कि महाप्रलय नाम का कार्यक्रम चल रहा है। वो लोग पत्रकार बिरादरी और चैनलों को लेकर ऐसी –ऐसी बातें कर रहे थे, कि मैं वहां रुक नहीं सका। बिना शॉपिंग किए वापस लौट आया।
इस दौर में करीब-करीब सभी चैनलों ने कुछ टीआरपी बटोरू कार्यक्रम बनवा रखे थे। जिसे टीआरपी कम होने की सूरत में अर्काइव से निकाल कर चला देते थे। महाप्रलय नामक कार्यक्रम भी उसी का एक हिस्सा था। जिसे जब तब टीआरपी के लिए अचानक ऑनएयर कर दिया जाता था।
तो स्टिंग ऑपरेशनों ने भी चैनलों में मजबूत जगह बनाई। कई चैनलों ने तो शुरुआती दौर में स्टिंग ऑपरेशन से जुड़ी खबरों को ज्यादा तरजीह दी। चाहे बात किसी फिल्म स्टार की हो या फिर राजनीतिक हस्तियों की। सबका स्टिंग ऑपरेशन करने का चलन सा चल पड़ा। उन खबरों में कितनी सच्चाई रहती थी, ये तो कह पाना बड़ा मुश्किल है। लेकिन ऐसे ही एक स्टिंग ऑपरेशन ने एक सरकारी स्कूल की अध्यापिका को बदनाम करके रख दिया।
28 अगस्त 2007 को एक नए आए चैनल ने एक स्टिंग ऑपरेशन ऑन एयर किया। इसमें दिखाया गया कि दिल्ली की एक सरकारी स्कूल की टीचर छात्राओं को वेश्यावृति में धकेलती है। इसके बाद काफी हंगामा मचा। आलम ये हुआ कि खबर दिखाए जाने के बाद अगले दिन सैकड़ों लोगों ने स्कूल को घेर लिया। यहां तक की आरोपी टीचर के कपड़े तक फाड़ डाले। पुलिस ने बीच-बचाव किया और आरोपी शिक्षिका को हिरासत में ले लिया। पुलिस ने मामले की जांच की, पूरा अनएडिटेड वीडियो देखा और ये पाया कि पूरा स्टिंग ऑपरेशन ही फर्जी है। शिक्षिका को पुलिस ने क्लीन चिट दे दी। पुलिस ने कहा कि स्टिंग ऑपरेशन दिखानेवाले पत्रकार ने महज नाम कमाने के लिए ऐसी खबर को परोसा है। इसके बाद केंद्र सरकार ने चैनल पर एक महीने के लिए प्रतिबंध लगा दिया।
भले ही सरकार ने उस वक्त प्रतिबंध लगा दिया हो, लेकिन कुछ महीने बाद वो चैनल एक बार फिर ऑन एयर हुआ। वो स्टिंग दिखाने और चलाने वाले पत्रकार आज भी किसी ना किसी चैनल में पत्रकारिता कर रहे हैं। हां, शायद उस घटना से कुछ ना कुछ सबक जरूर लिया होगा।
हालांकि ये कुछ बानगियां हैं, उस दौर में ऐसी हजारों घटनाएं हैं, जिन्होंने मीडिया की साख पर प्रश्नचिन्ह लगाए, तो कुछ घटनाओं ने मीडिया को इज्जत भी बख्शा। लेकिन कुल मिलाकर देखें, तो 2000 का दशक भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के शैशव काल का दौर था। जब चैनल के मालिक और पत्रकार ये समझ नहीं पा रहे थे, कि किस तरह से बाजार में जगह बनाई जाए। जिसका नतीजा टीवी स्क्रीन पर आए दिन नजर आ रहा था। उस वक्त गंभीर, राजनीतिक और आम लोगों के सरोकारों से जुड़ी खबरों के भरोसे कुछ चैनल बाजार में टिके रहे। बेशक वो घाटे में चले, लेकिन कभी उम्मा और निष्पक्ष पत्रकारिता से मुंह नहीं मोड़ा। तो कुछ ने जमकर लीक से हटकर खबरें चलाईं, टीआरपी बटोरा और जोरदार कमाई की।
2000 का दशक खत्म होते-होते शायद चैनलों ने ये समझ लिया कि गंभीर पत्रकारिता से ही भला हो सकता है या शायद चैनल शैशव काल से बाहर निकल रहे थे। तो एक बार फिर गंभीर पत्रकारिता शुरू हो गई। कई दूसरे चैनल भी बाजार में जगह बनाने लगे।

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