एक बरस और


प्रशांत पांडेय 


एक बरस और फिसल गया
मुट्ठी में बंद रेत की तरह
कुछ खट्टी-मीट्ठी यादें रह गयीं
ढलती शाम और आती रात की तरह
किसी का साथ मिला, तो कोई बिछड़ गया
पश्चिमी छोर पर डूबते सूरज की तरह
बरस का यूं लेखा जोखा होता गया
तराजू-बटखरे के मोल भाव की तरह
काश! कुछ पल-कुछ लम्हें रोक पाते
अपनों के निगहबान की तरह
एक बरस और फिसल गया
मुट्ठी में बंद रेत की तरह 

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